इंदौर / उसे गिनती लिखना नहीं आता है, लेकिन हिसाब की पक्की है। किताबों की गहराई नहीं नाप सकी, लेकिन इंच-टेप से लुंगड़ा-चोली की लंबाई-चौड़ाई ठीक से माप लेती है। यहां जितनी रौनक खाने-पीने और साज-श्रृंगार के सामानों की है, उतनी ही रंग-बिरंगे कपड़ों से सजी इस दुकान पर है।
ये हैं आलीराजपुर से 25 किमी दूर उमराली के भगोरिया हाट में सजी रेलम की बुटिक। किसी पक्की दुकान के बाहर बने ओटले पर अपनी सिलाई मशीन लेकर 17 साल की रेलम चौहान बैठी नजर आ जाएंगी। डिजाइनर चोली (आदिवासी पंरपरा अनुसार) हो, घाघरा हो या लुगड़ा... ऑर्डर मिलते ही एक दिन के भीतर सब कुछ तैयार कर देती हैं। रेलम कहती हैं डेढ़ साल पहले यह विचार आया कि पैसे कमाने का कुछ जरिया तलाशना चाहिए। मजदूरी नहीं करना चाहती थी। बहुत सोचा तो ख्याल आया क्यों न झाबुआ-आलीराजपुर में भी आदिवासी महिलाओं के लिए कपड़े सिलूं। मैं भी आदिवासी हूं इसलिए उनकी मांग बेहतर ढंग से जानती हूं। डेढ़ साल पहले आलीराजपुर के सरकारी केंद्र से सिलाई की ट्रेनिंग ली। सालभर पहले गांव में ही खुद का काम शुरू किया। इच्छा थी कि भगोरिया हाट में खुद की सिलाई की दुकान लगाऊं। हाट से दो दिन पहले वहां पहुंची। किराए पर दुकान ली और बाहर ओटले पर मशीन रखकर काम शुरू कर दिया। मैं खुद आदिवासी हूं इसलिए मुझे पता था कि महिलाओं को किस तरह के कपड़े पसंद आ सकते हैं? उस हिसाब से ही कपड़े सिले। पहली बार में ही अच्छी मांग रही।
चार भाई-बहनों में रेलम सबसे छोटी हैं। पिता इंदर सिंह और मां गोहली खेत में काम करते हैं। बड़ी बहन आंगनवाड़ी में कार्यकर्ता हैं, लेकिन रेलम ने पढ़ाई नहीं की। बेशक उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं है, लेकिन उन्हें व्यापार की अच्छी समझ है। कितनी आमदनी होगी? यह पूछने पर वे हंसकर टाल देती हैं। कहती है एक हजार रुपए ओटले के चुकाने के बाद भी मैं अच्छा-खासा कमाकर ही ले जाऊंगी।